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श्यामा-श्याम धाम-वृंदावन



श्यामा-श्याम धाम-वृंदावन,
                    सरस प्रेम रस विपिन बहावत।
संग ब्रज भामिनी,
                    अभिरामिनि धूनी वेणु बजावत।
जेहि सुनि, तजि अनहद धूनि ज्ञानी,
                    जानि समाधि उपाधि भुलावत।
दिव्य विलास रास-रस खेलत,
                    लाल-लाड़ली नाचत गावत।
उरझत उत कुंडल अलकनि, इत,
                    बेसर वनमालहिं उरझावत।
हिय हुलास कछु हास युगलवर,
                    लाल युगल निज कर सुरझावत।
पिय तनु लखि प्रतिबिंब प्रिया निज,
                    जानि आन तिय मान बढ़ावत।
उठि रिसाय चलि कटु सुभाय ललि,
                    कर धरि चिबुक भृकुटि बल लावत।
लै ललिता सखि अति सभीत पिय,
                    सजल नयन कर जोरि मनावत।
फिरि बैठीं मुख मोरि कहति 'उर,
                    धरि कोउ तिय अब मो ढिग आवत'।
बड़ असमंजस कहि न जाय कछु,
                    ठाढ़ो गिरिधर दृग बरसावत।
ललिता बुधि-बल लाल-ओढ़नी,
                    ओढ़ि लाल दुति - देह दुरावत।
लखि 'कृपालु' तिरछे दृग राधे,
                    हँसि निज प्रियतम कंठ लगावत॥

भावार्थ- प्रिया-प्रियतम वृन्दावन धाम में मधुर प्रेम रस की वर्षा कर रहे हैं। शरत् कालीन पूर्णिमा के चन्द्रमा से युक्त रात्रि है एवं करोड़ों गोपियों के साथ श्रीकृष्ण मधुर मुरली बजा रहे हैं। जिसे सुनकर जीवन्मुक्त ज्ञानी भी अपने अनहद नाद एवं समाधि को उपाधि समझकर भूल जाते हैं। श्यामा-श्याम के दिव्य रास - विलास का रस बरसाते हुए एवं गायनपूर्वक नृत्य करते-करते ही, श्रीकृष्ण के कुंडल किशोरी जी की वेणी में उलझ गये एवं किशोरी जी की बेसर ने वनमाला को उलझा लिया। ऐसी अवस्था में दोनों ही आनन्द में कुछ हँसने लगे । इसके पश्चात् जैसे ही लालजी ने दोनों हाथों से सुलझाना शुरू किया, वैसे ही अचानक उनके ऊपर एक महान् आपत्ति आ गयी। वह यह कि लाड़ली जी ने प्रियतम के वक्षःस्थल पर अपने ही प्रतिबिम्ब को देखकर भोलेपन में दूसरी प्रेमिका समझकर मान कर लिया तथा तत्क्षण ही कुपित होकर वहाँ से उठकर चल दीं। कुछ दूर जाकर ठोढ़ी पर हाथ रखे हुए एवं बल खाती भौंहों को ताने हुए बैठ गयीं। प्रियतम अत्यन्त ही डरकर ललिता सखी को साथ लेकर मनाने के लिए गये। प्रियतम प्यारीजी के सामने खड़े होकर आँसू भरे नेत्रों से हाथ जोड़कर अनुनय-विनयपूर्वक मनाने लगे, किन्तु प्रियतम के वक्षःस्थल में पुनः पूर्व भ्रम के अनुसार उसी प्रेयसी को बैठी देखकर किशोरी जी और भी क्रुद्ध होकर कहने लगीं, 'अरे निर्लज्ज ! उसी नायिका को हृदय में रखकर फिर अपना मुख 'दिखाने आया है।' लालजी बड़े ही असमंजस में पड़कर खड़े- खड़े आँसू बहाने लगे, कुछ भी कहते नहीं बना। तब ललिता के बुद्धि कौशल के द्वारा प्रियतम ने लाल ओढ़नी ओढ़कर अपने शरीर की कान्ति को ढक दिया। 'कृपालु' कहते हैं कि लाल ओढ़नी ओढ़े हुए लाल को देखकर एवं पूर्व नायिका को न देखकर किशोरी जी ने तिरछी आँखों से देखते हुए हँसकर लालजी को अपने गले से लगा लिया।

रचयिता : जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज
पृष्ठ संख्या : 15
पृष्ठ संख्या : 495
सर्वाधिकार सुरक्षित ©
जगद्गुरु कृपालु परिषत्

स्वर : सुश्री अखिलेश्वरी देवी
कवि : जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज



श्रेणी : कृष्ण भजन



श्यामा-श्याम धाम-वृंदावन | प्रेम रस मदिरा | मान-माधुरी | Ft. Akhileshwari Didi

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