धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सव
धृतराष्ट्र उवाच
धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः।
मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत सञ्जय।।1.1।।
॥ श्लोक अर्थ ॥
।।1.1।। धृतराष्ट्र ने कहा हे संजय धर्मभूमि कुरुक्षेत्र
में एकत्र हुए युद्ध के इच्छुक (युयुत्सव)
मेरे और पाण्डु के पुत्रों ने क्या किया ।।1.1।।
सञ्जय उवाच
दृष्ट्वा तु पाण्डवानीकं व्यूढं दुर्योधनस्तदा ।
आचार्यमुपसङ्गम्य राजा वचनमब्रवीत् ।।1.2।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
।।1.2।। सञ्जय बोले उस समय वज्रव्यूह से खड़ी हुई पाण्डव सेना को
देखकर राजा दुर्योधन द्रोणाचार्य के पास जाकर यह वचन बोला ।
पश्यैतां पाण्डुपुत्राणामाचार्य महतीं चमूम् ।
व्यूढां द्रुपदपुत्रेण तव शिष्येण धीमता ।।1.3।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
।।1.3।। हे आचार्य आपके बुद्धिमान् शिष्य द्रुपदपुत्र धृष्टद्युम्न के
द्वारा व्यूह रचना से खड़ी की हुई पाण्डवों की इस बड़ी भारी सेना को देखिये ।
अत्र शूरा महेष्वासा भीमार्जुनसमा युधि।
युयुधानो विराटश्च द्रुपदश्च महारथः।।1.4।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
।।1.4 1.6।।यहाँ (पाण्डवोंकी सेनामें) बड़ेबड़े शूरवीर हैं? जिनके
बहुत बड़ेबड़े धनुष हैं तथा जो युद्धमें भीम और अर्जुनके समान हैं।
उनमें युयुधान (सात्यकि)? राजा विराट और महारथी द्रुपद भी हैं।
धृष्टकेतु और चेकितान तथा पराक्रमी काशिराज भी हैं। पुरुजित् और
कुन्तिभोज ये दोनों भाई तथा मनुष्योंमें श्रेष्ठ शैब्य भी हैं। पराक्रमी युधामन्यु
और पराक्रमी उत्तमौजा भी हैं। सुभद्रापुत्र अभिमन्यु और द्रौपदीके
पाँचों पुत्र भी हैं। ये सबकेसब महारथी हैं।
धृष्टकेतुश्चेकितानः काशिराजश्च वीर्यवान्।
पुरुजित्कुन्तिभोजश्च शैब्यश्च नरपुङ्गवः।।1.5।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
।।1.5।।धृष्टकेतु चेकितान बलवान काशिराज पुरुजित्
कुन्तिभोज और मनुष्यों में श्रेष्ठ शैब्य।
युधामन्युश्च विक्रान्त उत्तमौजाश्च वीर्यवान्।
सौभद्रो द्रौपदेयाश्च सर्व एव महारथाः।।1.6।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
।।1.6।।पराक्रमी युधामन्यु बलवान् उत्तमौजा सुभद्रापुत्र
(अभिमन्यु) और द्रोपदी के पुत्र ये सब महारथी हैं।
अस्माकं तु विशिष्टा ये तान्निबोध द्विजोत्तम।
नायका मम सैन्यस्य संज्ञार्थं तान्ब्रवीमि ते।।1.7।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
।।1.7।।हे द्विजोत्तम हमारे पक्ष में भी जो विशिष्ट योद्धागण हैं
उनको आप जान लीजिये आपकी जानकारी के लिये अपनी
सेना के नायकों के नाम मैं आपको बताता हूँ।
भवान्भीष्मश्च कर्णश्च कृपश्च समितिञ्जयः ।
अश्वत्थात्मा विकर्णश्च सौमदत्तिस्तथैव च ।।1.8।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
।।1.8।।एक तो स्वयं आप भीष्म कर्ण और युद्ध
विजयी कृपाचार्य तथा अश्वत्थामा विकर्ण और सोमदत्त का पुत्र है ।
अन्ये च बहवः शूरा मदर्थे त्यक्तजीविताः।
नानाशस्त्रप्रहरणाः सर्वे युद्धविशारदाः।।1.9।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
।।1.9।।मेरे लिए प्राण त्याग करने के लिए तैयार
अनेक प्रकार के शस्त्रास्त्रों से सुसज्जित तथा
युद्ध में कुशल और भी अनेक शूर वीर हैं।
अपर्याप्तं तदस्माकं बलं भीष्माभिरक्षितम् ।
पर्याप्तं त्विदमेतेषां बलं भीमाभिरक्षितम् ।।1.10।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
।।1.10।।भीष्म के द्वारा हमारी रक्षित सेना अपर्याप्त है
किन्तु भीम द्वारा रक्षित उनकी सेना पर्याप्त है अथवा भीष्म
के द्वारा रक्षित हमारी सेना अपरिमित है किन्तु भीम के
द्वारा रक्षित उनकी सेना परिमित ही है।
अयनेषु च सर्वेषु यथाभागमवस्थिताः।
भीष्ममेवाभिरक्षन्तु भवन्तः सर्व एव हि । ।1.11।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
।।1.11।।विभिन्न मोर्चों पर अपनेअपने स्थान पर स्थित
रहते हुए आप सब लोग भीष्म पितामह की ही सब ओर से रक्षा करें ।
तस्य संजनयन्हर्षं कुरुवृद्धः पितामहः ।
सिंहनादं विनद्योच्चैः शङ्खं दध्मौ प्रतापवान् ।।1.12।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
।।1.12।। उस समय कौरवों में वृद्ध प्रतापी पितामह भीष्म ने
उस (दुर्योधन) के हृदय में हर्ष उत्पन्न करते हुये उच्च
स्वर में गरज कर शंखध्वनि की ।
ततः शङ्खाश्च भेर्यश्च पणवानकगोमुखाः।
सहसैवाभ्यहन्यन्त स शब्दस्तुमुलोऽभवत्।।1.13।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
।।1.13।।तत्पश्चात् शंख नगारे ढोल व शृंगी आदि
वाद्य एक साथ ही बज उठे जिनका बड़ा भय%8
ततः श्वेतैर्हयैर्युक्ते महति स्यन्दने स्थितौ ।
माधवः पाण्डवश्चैव दिव्यौ शङ्खौ प्रदध्मतुः । ।1.14।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
।।1.14।।इसके उपरान्त श्वेत अश्वों से युक्त भव्य
रथ में बैठे हुये माधव (श्रीकृष्ण) और पाण्डुपुत्र
अर्जुन ने भी अपने दिव्य शंख बजाये ।
पाञ्चजन्यं हृषीकेशो देवदत्तं धनंजयः ।
पौण्ड्रं दध्मौ महाशङ्खं भीमकर्मा वृकोदरः । ।1.15।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
।।1.15।।भगवान् हृषीकेश ने पांचजन्य धनंजय
(अर्जुन) ने देवदत्त तथा भयंकर कर्म करने वाले
भीम ने पौण्डू नामक महाशंख बजाया ।
अनन्तविजयं राजा कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः ।
नकुलः सहदेवश्च सुघोषमणिपुष्पकौ । ।1.16।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
।।1.16।।कुन्तीपुत्र राजा युधिष्ठिर ने अनन्त विजय
नामक शंख और नकुल व सहदेव ने क्रमश सुघोष
और मणिपुष्पक नामक शंख बजाये ।
काश्यश्च परमेष्वासः शिखण्डी च महारथः।
धृष्टद्युम्नो विराटश्च सात्यकिश्चापराजितः।।1.17।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
।।1.17 1.18।।हे राजन् श्रेष्ठ धनुषवाले काशिराज और
महारथी शिखण्डी तथा धृष्टद्युम्न एवं राजा विराट और
अजेय सात्यकि? राजा द्रुपद और द्रौपदीके पाँचों पुत्र
तथा लम्बीलम्बी भुजाओंवाले सुभद्रापुत्र अभिमन्यु इन
सभीने सब ओरसे अलगअलग (अपनेअपने) शंख बजाये।
रुपदो द्रौपदेयाश्च सर्वशः पृथिवीपते ।
सौभद्रश्च महाबाहुः शङ्खान्दध्मुः पृथक्पृथक् । ।1.18।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
।।1.17 1.18।।हे राजन् श्रेष्ठ धनुषवाले काशिराज और
महारथी शिखण्डी तथा धृष्टद्युम्न एवं राजा विराट और
अजेय सात्यकि? राजा द्रुपद और द्रौपदीके पाँचों पुत्र
तथा लम्बीलम्बी भुजाओंवाले सुभद्रापुत्र अभिमन्यु इन
सभीने सब ओरसे अलगअलग (अपनेअपने) शंख बजाये।
स घोषो धार्तराष्ट्राणां हृदयानि व्यदारयत् ।
नभश्च पृथिवीं चैव तुमुलो व्यनुनादयन् । ।1.19।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
।।1.19।।पाण्डवसेनाके शंखोंके उस भयंकर शब्दने
आकाश और पृथ्वीको भी गुँजाते हुए अन्यायपूर्वक
राज्य हड़पनेवाले दुर्योधन आदिके हृदय विदीर्ण कर दिये ।
अथ व्यवस्थितान् दृष्ट्वा धार्तराष्ट्रान्कपिध्वजः ।
प्रवृत्ते शस्त्रसंपाते धनुरुद्यम्य पाण्डवः । ।1.20।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
।।1.20।। हे महीपते धृतराष्ट्र अब शस्त्रोंके चलनेकी तैयारी
हो ही रही थी कि उस समय अन्यायपूर्वक राज्यको धारण
करनेवाले राजाओं और उनके साथियोंको व्यवस्थितरूपसे सामने
खड़े हुए देखकर कपिध्वज पाण्डुपुत्र अर्जुनने अपना गाण्डीव
धनुष उठा लिया और अन्तर्यामी भगवान् श्रीकृष्णसे ये वचन बोले ।
अर्जुन उवाच
हृषीकेशं तदा वाक्यमिदमाह महीपते ।
सेनयोरुभयोर्मध्ये रथं स्थापय मेऽच्युत । ।1.21।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
।।1.21 1.22।।अर्जुन बोले हे अच्युत दोनों सेनाओं के
मध्यमें मेरे रथको आप तबतक खड़ा कीजिये? जबतक
मैं युद्धक्षेत्रमें खड़े हुए इन युद्धकी इच्छावालोंको देख न
लूँ कि इस युद्धरूप उद्योगमें मुझे किनकिनके साथ
युद्ध करना योग्य है ।
यावदेतान्निरीक्षेऽहं योद्धुकामानवस्थितान् ।
कैर्मया सह योद्धव्यमस्मिन्रणसमुद्यमे । ।1.22।।
।।1.21 1.22।।अर्जुन बोले हे अच्युत दोनों सेनाओं के
मध्यमें मेरे रथको आप तबतक खड़ा कीजिये? जबतक
मैं युद्धक्षेत्रमें खड़े हुए इन युद्धकी इच्छावालोंको देख न
लूँ कि इस युद्धरूप उद्योगमें मुझे किनकिनके साथ
युद्ध करना योग्य है ।
योत्स्यमानानवेक्षेऽहं य एतेऽत्र समागताः।
धार्तराष्ट्रस्य दुर्बुद्धेर्युद्धे प्रियचिकीर्षवः । ।।1.23।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
।।1.23।।दुष्टबुद्धि दुर्योधनका युद्धमें प्रिय करने की
इच्छावाले जो ये राजालोग इस सेनामें आये हुए हैं ?
युद्ध करनेको उतावले हुए इन सबको मैं देख लूँ ।
सञ्जय उवाच
एवमुक्तो हृषीकेशो गुडाकेशेन भारत ।
सेनयोरुभयोर्मध्ये स्थापयित्वा रथोत्तमम् । ।1.24।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
।।1.24 1.25।।सञ्जय बोले हे भरतवंशी राजन्
निद्राविजयी अर्जुनके द्वारा इस तरह कहनेपर
अन्तर्यामी भगवान् श्रीकृष्णने दोनों सेनाओंके
मध्यभागमें पितामह भीष्म और आचार्य द्रोणके
सामने तथा सम्पूर्ण राजाओंके सामने श्रेष्ठ रथको
खड़ा करके इस तरह कहा कि हे पार्थ इन
इकट्ठे हुए कुरुवंशियोंको देख ।
भीष्मद्रोणप्रमुखतः सर्वेषां च महीक्षिताम् ।
उवाच पार्थ पश्यैतान्समवेतान्कुरूनिति । ।1.25।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
।।1.24 1.25।।सञ्जय बोले हे भरतवंशी राजन्
निद्राविजयी अर्जुनके द्वारा इस तरह कहनेपर
अन्तर्यामी भगवान् श्रीकृष्णने दोनों सेनाओंके
मध्यभागमें पितामह भीष्म और आचार्य द्रोणके
सामने तथा सम्पूर्ण राजाओंके सामने श्रेष्ठ रथको
खड़ा करके इस तरह कहा कि हे पार्थ इन
इकट्ठे हुए कुरुवंशियोंको देख ।
तत्रापश्यत्स्थितान्पार्थः पितृ़नथ पितामहान् ।
आचार्यान्मातुलान्भ्रातृ़न्पुत्रान्पौत्रान्सखींस्तथा । ।1.26।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
।।1.26।। उसके बाद पृथानन्दन अर्जुनने उन दोनों
ही सेनाओंमें स्थित पिताओंको? पितामहोंको? आचार्योंको?
मामाओंको? भाइयोंको? पुत्रोंको? पौत्रोंको तथा मित्रोंको?
ससुरोंको और सुहृदोंको भी देखा ।
वशुरान्सुहृदश्चैव सेनयोरुभयोरपि ।
तान्समीक्ष्य स कौन्तेयः सर्वान्बन्धूनवस्थितान् । ।1.27।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
।।1.27।। अपनीअपनी जगहपर स्थित उन सम्पूर्ण
बान्धवोंको देखकर वे कुन्तीनन्दन अर्जुन अत्यन्त
कायरतासे युक्त होकर विषाद करते हुए ये वचन बोले ।
अर्जुन उवाच
कृपया परयाऽऽविष्टो विषीदन्निदमब्रवीत् ।
दृष्ट्वेमं स्वजनं कृष्ण युयुत्सुं समुपस्थितम् । ।1.28।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
।।1.28 1.30।। अर्जुन बोले हे कृष्ण युद्धकी इच्छावाले
इस कुटुम्बसमुदायको अपने सामने उपस्थित देखकर
मेरे अङ्ग शिथिल हो रहे हैं और मुख सूख रहा है
तथा मेरे शरीरमें कँपकँपी आ रही है एवं रोंगटे खड़े
हो रहे हैं । हाथ से गाण्डीव धनुष गिर रहा है और
त्वचा भी जल रही है । मेरा मन भ्रमितसा हो रहा
है और मैं खड़े रहनेमें भी असमर्थ हो रहा हूँ ।
सीदन्ति मम गात्राणि मुखं च परिशुष्यति ।
वेपथुश्च शरीरे मे रोमहर्षश्च जायते ।।1.29।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
।।1.28 1.30।। अर्जुन बोले हे कृष्ण युद्धकी इच्छावाले
इस कुटुम्बसमुदायको अपने सामने उपस्थित देखकर
मेरे अङ्ग शिथिल हो रहे हैं और मुख सूख रहा है
तथा मेरे शरीरमें कँपकँपी आ रही है एवं रोंगटे खड़े
हो रहे हैं । हाथसे गाण्डीव धनुष गिर रहा है और
त्वचा भी जल रही है । मेरा मन भ्रमितसा हो रहा
है और मैं खड़े रहनेमें भी असमर्थ हो रहा हूँ ।
गाण्डीवं स्रंसते हस्तात्त्वक्चैव परिदह्यते ।
न च शक्नोम्यवस्थातुं भ्रमतीव च मे मनः ।।1.30।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
।।1.28 1.30।।अर्जुन बोले हे कृष्ण युद्धकी इच्छावाले
इस कुटुम्बसमुदायको अपने सामने उपस्थित देखकर
मेरे अङ्ग शिथिल हो रहे हैं और मुख सूख रहा है
तथा मेरे शरीरमें कँपकँपी आ रही है एवं रोंगटे खड़े
हो रहे हैं । हाथसे गाण्डीव धनुष गिर रहा है और
त्वचा भी जल रही है । मेरा मन भ्रमितसा हो रहा
है और मैं खड़े रहनेमें भी असमर्थ हो रहा हूँ ।
निमित्तानि च पश्यामि विपरीतानि केशव ।
न च श्रेयोऽनुपश्यामि हत्वा स्वजनमाहवे ।।1.31।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
।।1.31।। हे केशव मैं लक्षणों शकुनोंको भी
विपरीत देख रहा हूँ और युद्धमें स्वजनोंको
मारकर श्रेय (लाभ) भी नहीं देख रहा हूँ ।
न काङ्क्षे विजयं कृष्ण न च राज्यं सुखानि च ।
किं नो राज्येन गोविन्द किं भोगैर्जीवितेन वा ।।1.32।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
।।1.32।। हे कृष्ण मैं न तो विजय चाहता हूँ ?
न राज्य चाहता हूँ और न सुखोंको ही चाहता हूँ ।
हे गोविन्द हमलोगोंको राज्यसे क्या लाभ भोगोंसे
क्या लाभ अथवा जीनसे भी क्या लाभ |
येषामर्थे काङ्क्षितं नो राज्यं भोगाः सुखानि च ।
त इमेऽवस्थिता युद्धे प्राणांस्त्यक्त्वा धनानि च ।।1.33।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
।।1.33।। जिनके लिये हमारी राज्य? भोग और
सुखकी इच्छा है? वे ही ये सब अपने प्राणोंकी
और धनकी आशाका त्याग करके युद्धमें खड़े हैं ।
आचार्याः पितरः पुत्रास्तथैव च पितामहाः ।
मातुलाः श्चशुराः पौत्राः श्यालाः सम्बन्धिनस्तथा ।।1.34।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
।।1.34 1.35।। (टिप्पणी प0 24.1) आचार्य ?
पिता? पुत्र और उसी प्रकार पितामह? मामा? ससुर ?
पौत्र? साले तथा अन्य जितने भी सम्बन्धी हैं?
मुझपर प्रहार करने पर भी मैं इनको मारना नहीं चाहता ?
और हे मधुसूदन मुझे त्रिलोकीका राज्य मिलता हो ?
तो भी मैं इनको मारना नहीं चाहता? फिर पृथ्वीके
लिये तो मैं इनको मारूँ ही क्या |
एतान्न हन्तुमिच्छामि घ्नतोऽपि मधुसूदन ।
अपि त्रैलोक्यराज्यस्य हेतोः किं नु महीकृते ।।1.35।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
।।1.34 1.35।। (टिप्पणी प0 24.1) आचार्य? पिता?
पुत्र और उसी प्रकार पितामह? मामा? ससुर? पौत्र?
साले तथा अन्य जितने भी सम्बन्धी हैं? मुझपर प्रहार
करनेपर भी मैं इनको मारना नहीं चाहता? और हे मधुसूदन
मुझे त्रिलोकीका राज्य मिलता हो? तो भी मैं इनको मारना
नहीं चाहता? फिर पृथ्वीके लिये तो मैं इनको मारूँ ही क्या |
निहत्य धार्तराष्ट्रान्नः का प्रीतिः स्याज्जनार्दन ।
पापमेवाश्रयेदस्मान्हत्वैतानाततायिनः ।।1.36।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
।।1.36।। हे जनार्दन इन धृतराष्ट्रसम्बन्धियोंको मारकर
हमलोगोंको क्या प्रसन्नता होगी इन आततायियोंको
मारनेसे तो हमें पाप ही लगेगा ।
तस्मान्नार्हा वयं हन्तुं धार्तराष्ट्रान्स्वबान्धवान् ।
स्वजनं हि कथं हत्वा सुखिनः स्याम माधव ।।1.37।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
।।1.37।। इसलिये अपने बान्धव इन धृतराष्ट्रसम्बन्धियोंको
मारनेके लिये हम योग्य नहीं हैं क्योंकि हे माधव अपने
कुटुम्बियोंको मारकर हम कैसे सुखी होंगे |
यद्यप्येते न पश्यन्ति लोभोपहतचेतसः ।
कुलक्षयकृतं दोषं मित्रद्रोहे च पातकम् ।।1.38।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
।।1.38 1.39।। यद्यपि लोभके कारण जिनका विवेकविचार
लुप्त हो गया है? ऐसे ये दुर्योधन आदि कुलका नाश करने
से होनेवाले दोषको और मित्रोंके साथ द्वेष करनेसे होनेवाले
पापको नहीं देखते? तो भी हे जनार्दन कुलका नाश करने
से होनेवाले दोषको ठीकठीक जाननेवाले हमलोग इस पाप
से निवृत्त होनेका विचार क्यों न करें |
कथं न ज्ञेयमस्माभिः पापादस्मान्निवर्तितुम् ।
कुलक्षयकृतं दोषं प्रपश्यद्भिर्जनार्दन ।।1.39।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
।।1.38 1.39।। यद्यपि लोभके कारण जिनका विवेकविचार
लुप्त हो गया है? ऐसे ये दुर्योधन आदि कुलका नाश करने से
होनेवाले दोषको और मित्रोंके साथ द्वेष करनेसे होनेवाले पाप
को नहीं देखते? तो भी हे जनार्दन कुलका नाश करने से होने
वाले दोषको ठीकठीक जाननेवाले हमलोग इस पापसे निवृत्त होने
का विचार क्यों न करें |
कुलक्षये प्रणश्यन्ति कुलधर्माः सनातनाः ।
धर्मे नष्टे कुलं कृत्स्नमधर्मोऽभिभवत्युत ।।1.40।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
।।1.40।। कुलका क्षय होनेपर सदासे चलते आये
कुलधर्म नष्ट हो जाते हैं और धर्मका नाश होनेपर
(बचे हुए) सम्पूर्ण कुलको अधर्म दबा लेता है ।
अधर्माभिभवात्कृष्ण प्रदुष्यन्ति कुलस्त्रियः ।
स्त्रीषु दुष्टासु वार्ष्णेय जायते वर्णसङ्करः ।।1.41।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
।।1.41।।हे कृष्ण अधर्मके अधिक बढ़ जाने से कुल
की स्त्रियाँ दूषित हो जाती हैं और हे वार्ष्णेय स्त्रियोंके
दूषित होनेपर वर्णसंकर पैदा हो जाते हैं ।
सङ्करो नरकायैव कुलघ्नानां कुलस्य च ।
पतन्ति पितरो ह्येषां लुप्तपिण्डोदकक्रियाः ।।1.42।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
।।1.42।। वर्णसंकर कुलघातियोंको और कुल को
नरक में ले जानेवाला ही होता है। श्राद्ध और तर्पण
न मिलनेसे इन(कुलघातियों) के पितर भी अपने
स्थानसे गिर जाते हैं ।
दोषैरेतैः कुलघ्नानां वर्णसङ्करकारकैः ।
उत्साद्यन्ते जातिधर्माः कुलधर्माश्च शाश्वताः ।।1.43।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
।।1.43।। इन वर्णसंकर पैदा करनेवाले दोषों से
कुलघातियोंके सदासे चलते आये कुलधर्म और
जाति धर्म नष्ट हो जाते हैं ।
उत्सन्नकुलधर्माणां मनुष्याणां जनार्दन ।
नरकेऽनियतं वासो भवतीत्यनुशुश्रुम ।।1.44।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
।।1.44।। हे जनार्दन जिनके कुलधर्म नष्ट हो जाते हैं ?
उन मनुष्योंका बहुत कालतक नरकोंमें वापस होता है ?
ऐसा हम सुनते आये हैं ।
अहो बत महत्पापं कर्तुं व्यवसिता वयम् ।
यद्राज्यसुखलोभेन हन्तुं स्वजनमुद्यताः ।।1.45।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
।।1.45।। यह बड़े आश्चर्य और खेदकी बात है
कि हमलोग बड़ा भारी पाप करनेका निश्चय कर
बैठे हैं? जो कि राज्य और सुखके लोभसे अपने
स्वजनोंको मारनेके लिये तैयार हो गये हैं |
यदि मामप्रतीकारमशस्त्रं शस्त्रपाणयः ।
धार्तराष्ट्रा रणे हन्युस्तन्मे क्षेमतरं भवेत् ।।1.46।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
।।1.46।। अगर ये हाथोंमें शस्त्रअस्त्र लिये हुए
धृतराष्ट्रके पक्षपाती लोग युद्धभूमिमें सामना न
करने वाले तथा शस्त्ररहित मेरे को मार भी दें?
तो वह मेरे लिये बड़ा ही हितकारक होगा ।
सञ्जय उवाच
एवमुक्त्वाऽर्जुनः संख्ये रथोपस्थ उपाविशत् ।
विसृज्य सशरं चापं शोकसंविग्नमानसः ।।1.47।।
॥ श्लोक का अर्थ ॥
।।1.47।। सञ्जय बोले ऐसा कहकर शोकाकुल मनवाले
अर्जुन बाणसहित धनुषका त्याग करके युद्धभूमि में रथ
के मध्यभागमें बैठ गये ।
श्रेणी : कृष्ण भजन ( गीता )

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