राजस्थान खाटू श्याम मेले का क्या है 372 साल पुराना गौरवशाली इतिहास, जानें

राजस्थान खाटू श्याम मेले का क्या है 372 साल पुराना गौरवशाली इतिहास, जानें





राजस्थान में शेखावटी के सीकर जिले के रींगस कस्बे से अठारह किलोमीटर दूर खाटू गांव में विश्व प्रसिद्ध श्याम बाबा का फाल्गुनी सतरंगी लक्खी मेले में श्रद्धालुओं का तांता लगा हुआ है और 372 वर्ष से झुंझुनूं जिले के सूरजगढ़ का निशान इस खाटू धाम के शिखर पर चढ़ता आ रहा है।   


खाटू गांव में शीश के दानी श्याम बाबा का भव्य विशाल मंदिर है। खाटू धाम उत्तरी भारत का ऐसा धार्मिक स्थल है जहां फाल्गुन मास के शुक्ल द्वादशी पर विशाल मेला लगता है। सत्रह से छब्बीस मार्च तक चलने वाले इस फाल्गुनी सतरंगी लक्खी मेले में लाखों श्रद्धालु भक्तों का जन सैलाब उमड़ता है। हालांकि इस बार वैश्विक महामारी कोरोना के चलते मेले में भीड़ एकत्रित नहीं हो इसके लिए व्यवस्थाएं की गई हैं और मंदिर में दर्शन के लिए आने के लिए पहले पंजीयन कराना जरुरी हैं। 


जिला प्रशासन ने मेले में आने वाले श्रद्धालुओं की व्यवस्थाओं के लिए  पूरी तैयारियां कर रखी हैं और जगह जगह पुलिसकमीर् एवं अधिकारी व्यवस्थाओं में लगाये गये है। सामाजिक संगठनों के कार्यकतार्ओं की टीम द्वारा रींगस  से लेकर मंदिर तक जगह-जगह श्रद्धालुओं के लिए चाय, पानी, खाने-पीने, फल एवं  चिकित्सा आदि की समुचित व्यवस्था भी की गई है वहीं भक्तों के रुकने के लिए सैकड़ो धर्मशालाएं बनी हुई है।


खाटू श्याम मंदिर में एक रोचक घटना के बाद से सूरजगढ़ का प्राचीन निशान इस मंदिर के शिखर पर फहराया जाने लगा है। यह परम्परा 372 वर्ष से अभी तक चली आ रही है। इस बार 373 वा निशान चढ़ाया जाएगा। बताया जा रहा है कि खाटू धाम में विभिन्न स्थानों से निशान लेकर आए भक्तों में पहले अपना-अपना निशान चढ़ाने को लेकर बहस होने लगी, तत्पश्चात सर्वसम्मति से यह तय हुआ कि जो भक्त खाटू मंदिर धाम के लगे ताले को अपनी श्रद्धा एवं भक्ति से केवल मोर पंख से खोलेगा, वह अपना निशान सबसे पहले शिखरबन्द पर चढ़ाएगा। काफी भक्तजनों ने प्रयास किया लेकिन (मोर छड़ी) मोर पंख से कोई ताला नहीं खोल पाया। आखिर में भक्त गोवर्धन दास ने अपने शिष्य मंगलाराम अहिर को मोर छड़ी से ताला खोलने का आदेश दिया।


 मंगलाराम ने अपने गुरु के आदेश पर मंदिर के गेट पर लगे ताले को मोर छड़ी से छूने पर ताला खुल गया। इसके बाद 372 वर्ष से ही अभी तक परंपरानुसार सूरजगढ़ का प्राचीन निशान मंदिर के शिखरबंद पर चढ़ाया जाता है। इस बार 373वां निशान चढ़ाया जाएगा। यह प्राचीन निशान ग्यारह फुट लंबा एवं नौ फुट चौड़ा होता है। इस सफेद ध्वज पर नीले घोड़े पर सवार श्याम बाबा का चित्र बना होता है।
सूरजगढ़ के प्राचीन निशान के वंशजो में अलग अलग होने से कुछ समय से दो निशान पदयात्रा खाटू धाम जाती है और दोनों के निशान मंदिर के शिखरबन्द पर खाटू श्याम मंदिर कमेटी द्वारा चढ़वाएं जाते है। छठ को भक्त हजारीलाल सैनी एवं सप्तमी को भक्त मनोहर लाल सैनी सूरजगढ़ से खाटू धाम के लिए निशान लेकर पदयात्रा के रूप में रवाना होते है। पदयात्रा में बड़ी संख्या में श्रद्धालु शामिल होते है। पदयात्री निशान चढ़ाने के बाद वापस सूरजगढ़ तक पैदल ही जाते  है।

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खाटू के श्याम बाबा Story in hindi Khatu Shyam story in hindi


इस मंदिर में भीम के पौत्र और घटोत्कच के पुत्र बर्बरीक की श्याम यानी कृष्ण के रूप में पूजा की जाती है। इस मंदिर के लिए कहा जाता है कि जो भी इस मंदिर में जाता है उन्हें श्यामबाबा का नित नया रूप देखने को मिलता है।

राजस्थान खाटू श्याम मेले का क्या है 372 साल पुराना गौरवशाली इतिहास, जानें

हमारे देश में बहुत से ऐसे धार्मिक स्थल हैं जो अपने चमत्कारों व वरदानों के लिए प्रसिद्ध हैं। उन्हीं मंदिरों में से एक है राजस्थान में शेखावाटी क्षेत्र के सीकर जिले का विश्व विख्यात प्रसिद्ध खाटू श्याम मंदिर। यहां फाल्गुन माह के शुक्ल पक्ष की द्वादशी को श्याम बाबा का विशाल मेला भरता है जिसमें देश-विदेशों से कई लाख श्रद्धालु शामिल होते हैं। खाटू श्याम का मेला राजस्थान में भरने वाले बड़े मेलों में से एक है। इस मंदिर में भीम के पौत्र और घटोत्कच के पुत्र बर्बरीक की श्याम यानी कृष्ण के रूप में पूजा की जाती है। इस मंदिर के लिए कहा जाता है कि जो भी इस मंदिर में जाता है उन्हें श्यामबाबा का नित नया रूप देखने को मिलता है। कई लोगों को तो इस विग्रह में कई बदलाव भी नजर आते है। कभी मोटा तो कभी दुबला। कभी हंसता हुआ तो कभी ऐसा तेज भरा कि नजरें भी नहीं टिक पातीं। श्यामबाबा का धड़ से अलग शीष और धनुष पर तीन वाण की छवि वाली मूर्ति यहां स्थापित की गईं। कहते हैं कि मन्दिर की स्थापना महाभारत युद्ध की समाप्ति के बाद स्वयं भगवान कृष्ण ने अपने हाथों की थी।

श्याम बाबा की कहानी महाभारत काल से आरम्भ होती है। वे पहले बर्बरीक के नाम से जाने जाते थे तथा पान्डव भीम के पुत्र घटोत्कच और नाग कन्या अहिलवती के पुत्र थे। बाल्यकाल से ही वे बहुत वीर और महान यौद्धा थे। उन्होंने युद्ध कला अपनी माँ से सीखी। भगवान शिव की घोर तपस्या करके उन्हें प्रसन्न किया और उनसे तीन अभेध्य बाण प्राप्त किये तथा तीन बाणधारी का प्रसिद्ध नाम प्राप्त किया। अग्नि देव ने प्रसन्न होकर उन्हें धनुष प्रदान किया, जो कि उन्हें तीनों लोकों में विजयी बनाने में समर्थ थे।

महाभारत का युद्ध कौरवों और पाण्डवों के मध्य अपरिहार्य हो गया था, यह समाचार बर्बरीक को प्राप्त हुये तो उनकी भी युद्ध में सम्मिलित होने की इच्छा जाग्रत हुयी। जब वे अपनी माँ से आशीर्वाद प्राप्त करने पहुंचे तब माँ को हारे हुये पक्ष का साथ देने का वचन दिया। वे अपने लीले घोड़े, जिसका रंग नीला था, पर तीन बाण और धनुष के साथ कुरूक्षेत्र की रणभुमि की और अग्रसर हुये।

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सर्वव्यापी कृष्ण ने ब्राह्मण वेश धारण कर बर्बरीक से परिचित होने के लिये उसे रोका और यह जानकर उनकी हंसी भी उड़ायी कि वह मात्र तीन बाण से युद्ध में सम्मिलित होने आया है। ऐसा सुनने पर बर्बरीक ने उत्तर दिया कि मात्र एक बाण शत्रु सेना को ध्वस्त करने के लिये पर्याप्त है और ऐसा करने के बाद बाण वापिस तरकश में ही आयेगा। यदि तीनों बाणों को प्रयोग में लिया गया तो तीनों लोकों में हाहाकार मच जायेगा। इस पर कृष्ण ने उन्हें चुनौती दी की इस पीपल के पेड़ के सभी पत्रों को छेद कर दिखलाओ, जिसके नीचे दोनों खड़े थे। बर्बरीक ने चुनौती स्वीकार की और अपने तुणीर से एक बाण निकाला और इश्वर को स्मरण कर बाण पेड़ के पत्तों की ओर चलाया।
तीर ने क्षण भर में पेड़ के सभी पत्तों को भेद दिया और कृष्ण के पैर के इर्द-गिर्द चक्कर लगाने लगा, क्योंकि एक पत्ता उन्होनें अपने पैर के नीचे छुपा लिया था, बर्बरीक ने कहा कि आप अपने पैर को हटा लीजिये वर्ना ये आपके पैर को चोट पहुंचा देगा। कृष्ण ने बालक बर्बरीक से पूछा कि वह युद्ध में किस ओर से सम्मिलित होगा तो बर्बरीक ने अपनी माँ को दिये वचन दोहराये कि वह युद्ध में जिस ओर से भाग लेगा जो कि निर्बल हो और हार की और अग्रसर हो। कृष्ण जानते थे कि युद्ध में हार तो कौरवों की ही निश्चित है, और इस पर अगर बर्बरीक ने उनका साथ दिया तो परिणाम उनके पक्ष में ही होगा।

ब्राह्मण ने बालक से दान की अभिलाषा व्यक्त की, इस पर वीर बर्बरीक ने उन्हें वचन दिया कि अगर वो उनकी अभिलाषा पूर्ण करने में समर्थ होगा तो अवश्य करेगा। कृष्ण ने उनसे शीश का दान मांगा। बालक बर्बरीक क्षण भर के लिये चकरा गया, परन्तु उसने अपने वचन की दृढ़ता जतायी। बालक बर्बरीक ने ब्राह्मण से अपने वास्तिवक रूप में आने की प्रार्थना की और कृष्ण के बारे में सुन कर बालक ने उनके विराट रूप के दर्शन की अभिलाषा व्यक्त की, कृष्ण ने उन्हें अपना विराट रूप दिखाया।


उन्होने बर्बरीक को समझाया कि युद्ध आरम्भ होने से पहले युद्धभूमि की पूजा के लिये एक वीर क्षत्रिय के शीश के दान की आवश्यक्ता होती है। उन्होंने बर्बरीक को युद्ध में सबसे बड़े वीर की उपाधि से अलंकृत कर उनका शीश दान में मांगा। बर्बरीक ने उनसे प्रार्थना की कि वह अंत तक युद्ध देखना चाहता है, श्री कृष्ण ने उनकी यह बात स्वीकार कर ली। फाल्गुन माह की द्वादशी को उन्होंने अपने शीश का दान दिया। उनका सिर युद्धभूमि के समीप ही एक पहाड़ी पर सुशोभित किया गया, जहां से बर्बरीक सम्पूर्ण युद्ध का जायजा ले सकते थे।

युद्ध की समाप्ति पर पांडवों में ही आपसी खिंचाव-तनाव हुआ कि युद्ध में विजय का श्रेय किसको जाता है, इस पर कृष्ण ने उन्हें सुझाव दिया कि बर्बरीक का शीश सम्पूर्ण युद्ध का साक्षी है, अतैव उससे बेहतर निर्णायक भला कौन हो सकता है। सभी इस बात से सहमत हो गये। बर्बरीक के शीश ने उत्तर दिया कि कृष्ण ही युद्ध में विजय प्राप्त कराने में सबसे महान पात्र हैं, उनकी शिक्षा, उनकी उपस्थिति, उनकी युद्धनीति ही निर्णायक थी। उन्हें युद्धभुमि में सिर्फ उनका सुदर्शन चक्र घूमता हुआ दिखायी दे रहा था जो कि शत्रु सेना को काट रहा था, महाकाली दुर्गा कृष्ण के आदेश पर शत्रु सेना के रक्त से भरे प्यालों का सेवन कर रही थीं।

कृष्ण वीर बर्बरीक के महान बलिदान से काफी प्रसन्न हुये और वरदान दिया कि कलियुग में तुम श्याम नाम से जाने जाओगे, क्योंकि कलियुग में हारे हुये का साथ देने वाला ही श्याम नाम धारण करने में समर्थ है। ऐसा माना जाता है कि एक बार एक गाय उस स्थान पर आकर अपने स्तनों से दुग्ध की धारा स्वत: ही बहा रही थी, बाद में खुदायी के बाद वह शीश प्रकट हुआ।

एक बार खाटू के राजा को स्वप्न में मन्दिर निर्माण के लिये और वह शीश मन्दिर में सुशोभित करने के लिये प्रेरित किया गया। तदन्तर उस स्थान पर मन्दिर का निर्माण किया गया और कार्तिक माह की एकादशी को शीश मन्दिर में सुशोभित किया गया, जिसे बाबा श्याम के जन्मदिन के रूप में मनाया जाता है। मूल मंदिर 1027 ई. में रूपसिंह चौहान और उनकी पत्नी नर्मदा कंवर द्वारा बनाया गया था। मारवाड़ के शासक ठाकुर के दीवान अभय सिंह ने ठाकुर के निर्देश पर 1720 ई0 में मंदिर का जीर्णोद्धार कराया गया। मंदिर ने तब अपना वर्तमान आकार ले लिया और मूर्ति गर्भगृह में प्रतिष्ठापित की गयी थी। मूर्ति दुर्लभ पत्थर से बनी है।

खाटू श्यामजी के मन्दिर की बहुत मान्यता होने के उपरान्त भी यहां मूलभूत सुविधाओं का अभाव रहता है। मन्दिर में स्थान की कमी के कारण मेले के अवसर पर श्रद्धालुओं को दर्शन करने में आठ से दस घंटों तक का समय लग जाता है। मन्दिर ट्रस्ट निजी हाथों में होने से मन्दिर का विस्तार नहीं हो पा रहा है। सरकार को तिरूपति मन्दिर की तरह से यहां के प्रबन्धन का जिम्मा लेकर सरकारी स्तर पर कमेटी बनाकर यहां होने वाली आय को नियंत्रित कर उसी से यहां का समुचित विकास करवाना चाहिये।




श्रेणी : खाटू श्याम भजन





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Harshit Jain

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